बुधवार, जुलाई 25, 2012

कोई विकल्प है नहीं.............





















मिठाई-मिठाई रटते रहने और उनके स्वरूप-स्वाद का 
आलंकारिक वर्णन करते रहने भर से न तो मुँह मीठा होता है,
और न पेट भरता है। उसका रसास्वादन करने और लाभ उठाने 
का तरीका एक ही है, कि जिसकी भावभरी चर्चा की जा रही है, 
उसे खाया ही नहीं, पचाया भी जाय। धर्म उसे कहते हैं, जो धारण
 किया जाय। उस आवश्यकता के पूर्ति के लिए कथा-प्रवचनों को 
कहते-सुनते रहना भी कुछ कारगर न हो सकेगा। बात तो तभी बनेगी, 
जब जिस प्रक्रिया का माहात्म्य कहा-सुना जा रहा हो, उसे व्यवहार
 में उतारा जाय। व्यायाम किए बिना कोई पहलवान कहाँ बन पाता है?
 इसी प्रकार धर्म के तत्त्वज्ञान को व्यावहारिक जीवनचर्या में उतारने के
 अतिरिक्त और कोई विकल्प है नहीं।

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